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Sunday, May 10, 2015

UPTET SARKARI NAUKRI News - शिक्षा मित्रों के समायोजन में रुचि नहीं ले रहे बीएसए

UPTET SARKARI NAUKRI   News - 

शिक्षा मित्रों के समायोजन में रुचि नहीं ले रहे बीएसए
•शिक्षा निदेशक ने लगाई फटकार, कहा-नहीं सुधरे तो होगी कार्रवाई
•दूसरे चरण में 91104 शिक्षा मित्रों का किया जाना है समायोजन
लखनऊ (ब्यूरो)। शिक्षा मित्रों के समायोजन में कई जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारी रुचि नहीं ले रहे हैं। वे न सिर्फ पदों की संख्या को लेकर भ्रम पैदा कर रहे हैं, बल्कि पहले से कार्यरत शिक्षकों की पदोन्नति में भी देरी कर रहे हैं। पदोन्नति से खाली हुए पदों पर भी शिक्षा मित्रों को समायोजित किया जाना है। इस पर बेसिक शिक्षा निदेशक ने बेसिक शिक्षा अधिकारियों की कड़ी फटकार लगाई है। उन्होंने चेतावनी दी है कि यही रवैया बरकरार रहा तो कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
दूसरे चरण में 30 मई तक 91104 शिक्षामित्रों को समायोजित किया जाना है। बेसिक शिक्षा निदेशक दिनेश बाबू शर्मा ने सभी बेसिक शिक्षा अधिकारियों को भेजे पत्र में कहा है कि कई जिलों में शिक्षामित्रों के समायोजन को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। कन्नौज, महोबा और गोंडा आदि जिलों के बीएसए ने तो सृजित पदों की संख्या पर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है। कई जिलों में शिक्षकों की पदोन्नति की कार्यवाही अभी तक शुरू नहीं हुई है। उन्होंने पदोन्नति का काम हर हाल में 20 मई तक पूरा कर लेने के निर्देश दिए हैं। उन्होंने कहा कि अगर सहायक अध्यापकों के पद खाली होने के बाद भी शिक्षामित्रों का समायोजन नहीं हो पाया तो संबंधित बीएसए के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी




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UPTET SARKARI NAUKRI News BADAUN 6TH CUTOFF -

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Saturday, May 9, 2015

UPTET SARKARI NAUKRI News मानदेय का बजट भी पास हो गया

UPTET SARKARI NAUKRI   News मानदेय का बजट भी पास हो गया 

साथियो नमस्कार,
अभी हमारे लखनऊ टेट मोर्चे के सदस्यों(गणेश जी,ऋषिदेव,रोहित शुक्ला जी) की मुलकात मा0 मंत्री जी श्री राम गोविन्द जी से हुई।हम लोगो ने पूर्व में दिए गए ज्ञापन के संधर्भ में चर्चा की।तो उन्होंने कहा की हमने सचिव को आदेशित कर दिया है।आप लोगो के मानदेय का बजट भी पास हो गया है।आप लोग डायरेक्टर बेसिक से इस संधर्भ में जानकारी ले ले। सैद्धांतिक ट्रेनिंग के लिए भी सचिव को आदेशित कर दिया गया।
फर्जीवाड़े और नाम काटने की बात पर उन्होंने कहा कि माँ0 सुप्रीम कोर्ट भी इस बात को लेकर गंभीर है।हमने भी कमेटी गठित कर दी है।
साथियो फिर भी हमे 12 मई को ज्ञापन का कार्यक्रम जरूर करना है।
जय हिन्द।।।।।जय टेट।।।


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UPTET SARKARI NAUKRI News - शिक्षामित्र अवैध समायोजन मामले मे राज्य सरकार के काउंटर का विवरण

UPTET SARKARI NAUKRI   News - 

शिक्षामित्र अवैध समायोजन मामले मे राज्य
सरकार के काउंटर का विवरण :-
राज्य सरकार ने केस के कुल 9 महीने होने के बाद काउंटर दाखिल किया है । राज्य सरकार से 1981 भर्ती नियमावली मे संशोधित 16 क के विषय मे सवाल पूछे गए थे । राज्य सरकार का जवाब निम्न प्रकार से है -
1- सरकार ने कहा है की लखनऊ और इलाहाबाद बेंच मे अवैध समायोजन संबंधी 6-7 वाद लंबित हैं अतः सभी मामलों की सुनवाई या तो लखनऊ बेंच मे की जाए या फिर इलाहाबाद बेंच मे की जाए ।
9 महीने बाद होश आया है सुनवाई कराने का जब
कोर्ट ने कहा है की अंतिम ऑर्डर पास
किया जाएगा ।
2- सरकार ने कहा है की शिक्षामित्र अब
सरकारी कर्मचारी है अतः बेसिक शिक्षा के
सचिव संजय सिन्हा को पार्टी बनाया जाए ।
आधारहीन तर्क , चाहे संजय सिन्हा ज जवाब
दाखिल करें या डी॰ बी॰ शर्मा जी
16 क
का संशोधन कैसे किया इसका जवाब किसी के
पास नही है । शिक्षामित्रों का चयन कोर्ट के
निर्णय के अधीन है और जब केस शुरू हुआ था तब
समायोजित शिक्षामित्र संविदकर्मी थे । रिट
संख्या डाल कर नियुक्ति पत्र दिया गया है ।
3- सरकार ने कहा है की 172000
शिक्षामित्रों को पार्टी बनाना चाहिए ।
आधारहीन तर्क , शिक्षामित्रों की तरफ से
तीन संगठन हैं जो शिक्षामित्रों की और से
केस लड़ रहे हैं । कोर्ट ने
शिक्षामित्रों को पार्टी न सिर्फ इंटरवीनर
माना है ।
4- सरकार ने कहा है की शिक्षामित्र 2010 के
पहले से कार्यरत है इसलिए उन्हे पैरा टीचर
मानकर टीईटी से छूट दी
गयी है ।
सरकार के इस तर्क को कोर्ट एवं एनसीटीई
पहले
ही खारिज कर चुके हैं और
संविदा कर्मी माना गया है तथा
एनसीटीई ने
सरकार से पूछा है की पैरा टीचर हैं तो सिर्फ
11 माह का मानदेय क्यों दिया जाता है ।
अगर शिक्षामित्र पैरा टीचर हैं तो फिर 16 क
जैसे संशोधन की आवश्यकता ही क्यों
पड़ी ।
5- सबसे महत्वपूर्ण बात , 16 क संशोधन जिसे
मुख्य रूप से चैलेंज किया गया है सरकार
या शिक्षामित्रों की तरफ से उस पर एक
भी लिने नही लिखी है ।
सरकार को संशोधन से पूर्व एनसीटीई व
केंद्र
सरकार से अनुमति लेनी चाहिए थी और ये
संशोधन केंद्र सरकार को करके राज्य सरकार
को नोटिफिकेशन जारी किया जाना चाहिए
था । केंद्र ने अपने गज़ट मे साफ लिखा है
की स्वयं केंद्र सरकार सामान्य
परिस्थितियों टीईटी से छूट नही दे
सकती है ।
एनसीटीई ने अपने काउंटर मे तथा केंद्र
सरकार
ने आरटीआई के माध्यम से साफ किया है
की शिक्षामित्रों को टीईटी से छूट
नही दी गयी है ।
6- सरकार ने शिक्षामित्रों की ट्रेनिंग के
वैध बताने वाले कई पत्र लगाए हैं ।
एनसीटीई ने सरकार के सभी
दावों को खारिज
करते हुए शिक्षामित्रों की ट्रेनिंग को अवैध
बताया है ।
सरकार की तरफ से लगभग 15 बिन्दुओं पर कोई
लिखित जवाब नही दिया गया है और कहा गया है
की ये मुद्दे बहस के दौरान रखे जाएंगे ।
री-जोइंडर की प्रक्रिया प्रारम्भ हो
चुकी है
। हमारे पास सभी काउंटर का मुहतोड़ जवाब है ।
शिक्षामित्र इतने घबराये क्यों है??
क्यों उनमे एक बेचैनी सी है? ये बात कोई समझ
नही पा रहा है,, इसी पर कुछ बिंदु देखे
जो शिक्षामित्रो के समायोजन को समापन में
बदलने वाले है,,,
१. शिक्षामित्रो के पदों का सर्जन
नही किया गया है, बल्कि प्रदेश में ७२८२५ व्
अन्य भर्ती के लिए रिक्त सीटों पर
ही इनको समायोजित कर दिया गया है,
२.किसी भी नियुक्ति से पूर्व पद सर्जन एक
अत्यंत महत्तवपूर्ण स्टेप होता है, विज्ञापन से
पूर्व यह अत्यंत जरुरी होता है,
३. केंद्र सरकार केवल सर्व शिक्षा अभियान
द्वारा सर्जित पदों के सापेक्ष ही ६५% धन वेतन
के रूप में देती है, लेकिन शिक्षामित्रो के पद
इसके अंतर्गत नही आते है, क्योंकि सर्व
शिक्षा अभियान के पदों को भरने के लिए एक
विशेष प्रक्रिया होती है, जैसे पदों का सर्जन,
ncte से अनुमति, केंद्र सरकार से अनुमति, वित्त
विभाग से अनुमति, ऐसा कुछ नही किया गया है,
४. इसके बाद एक विधिवत विज्ञापन निकल कर
पदों को भरा जाता है, बिना विज्ञापित
पदों के कोई
भर्ती हो ही नही सकती है,
५. शिक्षामित्रों की छ माह में एक वेतन
जो जारी किया गया है, उसमे केंद्र सरकार
का अंश नही है, क्योंकि केंद्र ने
शिक्षामित्र, या शिक्षा सहायक के
पदों को सिरे से नकार दिया था, इसलिए
शिक्षामित्रो को एक माह का वेतन राज्य
सरकार के दानस्वरूप दे दिया गया है,
जो कि हमेशा मिलना बहुत मुश्किल है,
६. राज्य सरकार
द्वारा शिक्षामित्रो को शिक्षा सहायक पद
पर
समायोजित करने की और एक नियत वेतनमान देने
की अनुमति मांगी गयी थी, जिसे
केंद्र से
मना कर दिया था, उसके बाद भी राज्य सरकार
द्वारा इन्हें सहायक अध्यापक पद पर संयोजित
कर दिया,,,
७. अत: स्पष्ट है आज नही तो कल
शिक्षामित्रो का बहार होना तय है, चाहे
नियुक्तिपत्र मिल गया हो या फिर पेंसन....
तीन
लाख पद सर्व शिक्षा अभियान के खाते में आते
है,, राज्य सरकार के खाते में नही...


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UPTET SARKARI NAUKRI News - यूपी में छुट्टियों की बरसात, मामला हाईकोर्ट पहुंचा

UPTET SARKARI NAUKRI   News - 

यूपी में छुट्टियों की बरसात, मामला हाईकोर्ट पहुंचा

By Akram | Saturday, May 9, 2015 - 20:38
लखनऊ. यूपी में महापुरुषों के नाम पर छुट्टियों की बरसात हो रही है. सूबे में 1 साल में 125 दिन छुट्टियां हैं. प्रदेश में ऐसे ही हर दो चार दिन पर एक महापुरुष की जयंती मनाने का रिवाज बन गया है. महापुरुषों की जयंती के नाम पर छुट्टियों का सिलसिला एक बार शुरु हुआ तो आगे बढ़ता ही गया. सूबे में साल के 37 दिन सरकारी छुट्टियां मनाई जाती हैं.
इसके अलावा सरकारी मुख्यालयों में शनिवार और रविवार की छुट्टी अलग हैं. छुट्टियों का मामला हाईकोर्ट पहुंच गया है.
समाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की है कि यूपी सरकार सार्वजनिक छुट्टी नीति बनाए, ताकि महापुरुषों के नाम पर मौज और सियासत दोनों पर लगाम लग सके. वहीं, समाजवादी पार्टी का कहना है कि महापरुषों के बारे में बताने और समझाने के लिए छुट्टियां दी जाती हैं.

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महाराणा प्रताप की जयंती पर शत शत नमन एवम शुभकामनायें

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महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1597 में हुआ था।
 महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ


हल्दीघाटी का युद्ध
मुख्य लेख : हल्दीघाटी का युद्ध.

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।

महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया


यह थी कहानी -

अकबर के महासेनापति राजा मानसिंह, शोलापुर विजय करके लौट रहे थे। उदय सागर पर महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबन्ध किया। हिन्दू नरेश के यहाँ भला अतिथि का सत्कार न होता, किंतु महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत के साथ बैठकर भोजन कैसे कर सकते थे, जिसकी बुआ मुग़ल अन्त:पुर में हो। मानसिंह को बात समझने में कठिनाई नहीं हुई। अपमान से जले वे दिल्ली पहुँचे। उन्होंने सैन्य सज्जित करके चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

प्रताप और जहाँगीर का संघर्ष

हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत का छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।[4] महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।


राजपूतों का बलिदान - झाला सरदार

इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था। सलीम पर प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी उसे बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसता जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर 'झाला सरदार' ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार 'मन्नाजी' तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उसका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

 वनवास

महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैय्या थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था। उससे भी अधिक वह केवल यह चाहता था कि प्रताप मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें और उसका दम्भ सफल हो जाय। हिंदुत्व पर 'दीन-ए-इलाही' स्वयं विजयी हो जाता। प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिंदुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अम्लान रहा, अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है। कहते हैं महाराणा ने अकबर को एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते। यह अबुल फ़ज़ल की मात्र एक गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी। महाराणा इस प्रचुर सम्पत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गये। चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से उद्धार कर लिया। उदयपुर उनकी राजधानी बना। अपने 24 वर्षों के शासन काल में उन्होंने मेवाड़ की केसरिया पताका सदा ऊँची रखी


पराक्रमी चेतक


महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा 'चेतक' था। हल्दीघाटी के युद्ध में बिना किसी सहायक के प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर चल पडे‌। उसके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लाँघ गया, परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक, नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, "हो, नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उसका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए।

शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा

जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहा था, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था। प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, "मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।" सलीम ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा दिया। राणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उसे अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा।[5] संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर का भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव मारा गया। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया


महाराणा की प्रतिज्ञा

प्रताप को अभूतपूर्व समर्थन मिला। यद्यपि धन और उज्ज्वल भविष्य ने उसके सरदारों को काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसी ने भी उसका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने उसके कार्य के लिये अपना रक्त बहाया। पत्ता के वंशधरों ने भी ऐसा ही किया और सलूम्बर के कुल वालों ने भी चूण्डा की स्वामिभक्ति को जीवित रखा। इनकी वीरता और स्वार्थ-त्याग का वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास में अत्यन्त गौरवमय समझा जाता है। उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह 'माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेगा।' इस प्रतिज्ञा का पालन उसने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र 'अमर' का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था। इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। 'चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।' महाराणा की प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥

कठोर जीवन निर्वाह

चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर भट्ट कवियों ने उसको आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा दी है। प्रताप ने अपनी जन्मभूमि की इस दशा को देखकर सब प्रकार के भोग-विलास को त्याग दिया। भोजन-पान के समय काम में लिये जाने वाले सोने-चाँदी के बर्तनों को त्यागकर वृक्षों के पत्तों को काम में लिया जाने लगा। कोमल शय्या को छोड़ तृण शय्या का उपयोग किया जाने लगा। उसने अकेले ही इस कठिन मार्ग को अपनाया ही नहीं अपितु अपने वंश वालों के लिये भी इस कठोर नियम का पालन करने के लिये आज्ञा दी थी कि "जब तक चित्तौड़ का उद्धार न हो, तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।" चित्तौड़ की मौजूदा दुर्दशा सभी लोगों के हृदय में अंकित हो जाय, इस दृष्टि से उसने यह आदेश भी दिया कि युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे-आगे बजाये जाते थे, वे अब सेना के पीछे बजाये जायें। इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है और युद्ध के नगाड़े सेना के पिछले भाग के साथ ही चलते हैं।

राणा प्रताप और अकबर

अजमेर को अपना केन्द्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। मारवाड़ का मालदेव, जिसने शेरशाह का प्रबल विरोध किया था, मेड़ता और जोधपुर में असफल प्रतिरोध के बाद आमेर के भगवान दास के समान ही अकबर की शरण में चला गया।[6] उसने अपने पुत्र उदयसिंह को अकबर की सेवा में भेजा। अकबर ने अजमेर की तरफ़ जाते हुए नागौर में उससे मुलाक़ात की और इस अवसर पर मंडौर के राव को 'राजा' की उपाधि प्रदान की।[7]उसका उत्तराधिकारी उदयसिंह स्थूल शरीर का था, अतः आगे चलकर वह राजस्थान के इतिहास में मोटा राजा के नाम से विख्यात हुआ। इस समय से कन्नौज के वंशज मुग़ल बादशाह के 'दाहिने हाथ' पर स्थान पाने लगे। परन्तु अपनी कुल मर्यादा की बलि देकर मारवाड़ नरेश ने जिस सम्मान को प्राप्त किया था, वह सम्मान क्या मारवाड़ के राजा के सन्तान की ऊँचे सम्मान की बराबरी कर सकता है।
[सम्पादन] उदयसिंह द्वारा मुग़लों से विवाह सम्बन्ध

मोटा राजा उदयसिंह पहला व्यक्ति था, जिसने अपनी कुल की पहली कन्या का विवाह तातार से किया था।[8] इस सम्बन्ध के लिए जो घूस ली गई वह महत्त्वपूर्ण थी। उसे चार समृद्ध परगने प्राप्त हुए। इनकी सालाना आमदनी बीस लाख रुपये थी। इन परगनों के प्राप्त हो जाने से मारवाड़ राज्य की आय दुगुनी हो गई। आमेर और मारवाड़ जैसे उदाहरणों की मौजूदगी में और प्रलोभन का विरोध करने की शक्ति की कमी के कारण, राजस्थान के छोटे राजा लोग अपने असंख्य पराक्रमी सरदारों के साथ दिल्ली के सामंतों में परिवर्तित हो गए और इस परिवर्तन के कारण उनमें से बहुत से लोगों का महत्त्व भी बढ़ गया। मुग़ल इतिहासकारों ने सत्य ही लिखा है कि वे 'सिंहासन के स्तम्भ और अलंकार के स्वरूप थे।' परन्तु उपर्युक्त सभी बातें प्रताप के विरुद्ध भयजनक थीं। उसके देशवासियों के शस्त्र अब उसी के विरुद्ध उठ रहे थे। अपनी मान-मर्यादा बेचने वाले राजाओं से यह बात सही नहीं जा रही थी कि प्रताप गौरव के ऊँचे आसमान पर विराजमान रहे। इस बात का विचार करके ही उनके हृदय में डाह की प्रबल आग जलने लगी। प्रताप ने उन समस्त राजाओं (बूँदी के अलावा) से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया, जो मुसलमानों से मिल गए थे।
[सम्पादन] वैवाहिक संबंधों पर रोक

सिसोदिया वंश के किसी शासक ने अपनी कन्या मुग़लों को नहीं दी। इतना ही नहीं, उन्होंने लम्बे समय तक उन राजवंशों को भी अपनी कन्याएँ नहीं दीं, जिन्होंने मुग़लों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध क़ायम किये थे। इससे उन राजाओं को काफ़ी आघात पहुँचा। इसकी पुष्टि मारवाड़ और आमेर के राजाओं, बख़्त सिंह और जयसिंह के पुत्रों से होती है। दोनों ही शासकों ने मेवाड़ के सिसोदिया वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्धों को पुनः स्थापित करने का अनुरोध किया था। लगभग एक शताब्दी के बाद उनका अनुरोध स्वीकार किया गया और वह भी इस शर्त के साथ कि मेवाड़ की राजकन्या के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र ही सम्बन्धित राजा का उत्तराधिकारी होगा। सिसोदिया घराने ने अपने रक्त की पवित्रता को बनाये रखने के लिए जो क़दम उठाये गए, उनमें से एक का उल्लेख करना आवश्यक है, क्योंकि उस घटना ने आने वाली घटनाओं को काफ़ी प्रभावित किया है। आमेर का राजा मानसिंह अपने वंश का अत्यधिक प्रसिद्ध राजा था और उसके समय से ही उसके राज्य की उन्नति आरम्भ हुई थी। अकबर उसका फूफ़ा था। वैसे मानसिंह एक साहसी, चतुर और रणविशारद् सेनानायक था और अकबर की सफलताओं में आधा योगदान भी रहा था, परन्तु पारिवारिक सम्बन्ध तथा अकबर की विशेष कृपा से वह मुग़ल साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण सेनापित बन गया था। कच्छवाह भट्टकवियों ने उसके शौर्य तथा उसकी उपलब्धियों का तेजस्विनी भाषा में उल्लेख किया है।
[सम्पादन] हल्दीघाटी युद्ध
Main.jpg मुख्य लेख : हल्दीघाटी का युद्ध

हल्दीघाटी का युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को हुआ। इससे पूर्व अकबर ने 1541 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, किंतु राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। उदयसिंह प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी अकबर से युद्ध जारी रखा। उनका 'हल्दीघाटी का युद्ध' इतिहास प्रसिद्ध है। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए अप्रैल, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पर्वत की 'हल्दीघाटी' शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये। इस पर भी राणा प्रताप ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
[सम्पादन] राणा प्रताप की मानसिंह से भेंट
चित्तौड़गढ़ का क़िला
Fort Of Chittorgarh

शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था तो उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में था, मिलने की इच्छा प्रकट की। प्रताप उसका स्वागत करने के लिए उदयसागर तक आया। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर के राजा के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमरसिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। राणा प्रताप अनुपस्थित थे। मानसिंह के पूछने पर अमरसिंह ने बताया कि राणा को सिरदर्द है, वे नहीं आ पायेंगे। आप भोजन करके विश्राम करें। मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि "राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण समझ गया हूँ। जो कुछ होना था, वह तो हो गया और उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि वे मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन परोसेगा।" मानसिंह ने राणा के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। तब प्रताप ने उसे कहला भेजा कि "जिस राजपूत ने अपनी बहन तुर्क को दी हो, उसके साथ कौन राजपूत भोजन करेगा।"

राजा मानसिंह ने इस अपमान को आहूत करने में बुद्धिमता नहीं दिखाई थी। यदि प्रताप की तरफ़ से उसे निमंत्रित किया गया होता, तब तो उसका विचार उचित माना जा सकता था, परन्तु इसके लिए प्रताप को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को जो अन्न देवता को अर्पण किए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रखकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने कहा, "आपकी ही मान-मर्यादा बचाने के लिए हमने अपनी मर्यादा को खोकर मुग़लों को अपनी बहिन-बेटियाँ दीं। इस पर भी जब आप में और हम में विषमता रही, तो आपकी स्थिति में भी कमी आयेगी। यदि आपकी इच्छा सदा ही विपत्ति में रहने की है, तो यह अभिप्राय शीघ्र ही पूरा होगा। यह देश हृदय से आपको धारण नहीं करेगा।" अपने घोड़े पर सवार होकर मानसिंह ने राणा प्रताप, जो इस समय आ पहुँचे थे, को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा, "यदि मैं तुम्हारा यह मान चूर्ण न कर दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं।"

प्रताप ने उत्तर दिया कि "आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी।" वहाँ पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने अभद्र भाषा में कह दिया कि "अपने साथ फूफ़ा को लाना मत भूलना।" जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खोद दिया गया और फिर वहाँ गंगा का जल छिड़का गया और जिन सरदारों एवं राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने अपने को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया तथा वस्त्रादि बदले।[9]मुग़ल सम्राट को सम्पूर्ण वृत्तान्त की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। अकबर ने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परन्तु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन युद्धों ने प्रताप का नाम अमर कर दिया। पहला युद्ध हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। जब तक मेवाड़ पर किसी सिसोदिया का अधिकार रहेगा अथवा कोई भट्टकवि जीवित रहेगा, तब तक हल्दीघाटी का नाम कोई भुला नहीं सकेगा।
मान सिंह पर हमला करते हुए महाराणा प्रताप और चेतक
[सम्पादन] कमलमीर का युद्ध

विजय से प्रसन्न सलीम पहाड़ियों से लौट गया, क्योंकि वर्षा ऋतु के आगमन से आगे बढ़ना सम्भव न था। इससे प्रताप को कुछ राहत मिली। परन्तु कुछ समय बाद शत्रु पुनः चढ़ आया और प्रताप को एक बार पुनः पराजित होना पड़ा। तब प्रताप ने कमलमीर को अपना केन्द्र बनाया। मुग़ल सेनानायकों कोका और शाहबाज ख़ाँ ने इस स्थान को भी घेर लिया। प्रताप ने जमकर मुक़ाबला किया और तब तक इस स्थान को नहीं छोड़ा, जब तक पानी के विशाल स्रोत नोगन के कुँए का पानी विषाक्त नहीं कर दिया गया। ऐसे घृणित विश्वासघात का श्रेय आबू के देवड़ा सरदार को जाता है, जो इस समय अकबर के साथ मिला हुआ था। कमलमीर से प्रताप चावंड चला गया और सोनगरे सरदार भान ने अपनी मृत्यु तक कमलमीर की रक्षा की। कमलमीर के पतन के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगुन्दा के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इसी अवधि में मोहब्बत ख़ाँ ने उदयपुर पर अधिकार कर लिया और अमीशाह नामक एक मुग़ल शाहज़ादा ने चावंड और अगुणा पानोर के मध्यवर्ती क्षेत्र में पड़ाव डाल कर यहाँ के भीलों से प्रताप को मिलने वाली सहायता रोक दी। फ़रीद ख़ाँ नामक एक अन्य मुग़ल सेनापति ने छप्पन पर आक्रमण किया और दक्षिण की तरफ़ से चावंड को घेर लिया। इस प्रकार प्रताप चारों तरफ़ से शत्रुओं से घिर गया और बचने की कोई उम्मीद न थी। वह रोज़ाना एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के गुप्त स्थानों में छिपता रहता और अवसर मिलने पर शत्रु पर आक्रमण करने से भी न चूकता। फ़रीद ने प्रताप को पकड़ने के लिए चारों तरफ़ अपने सैनिकों का जाल बिछा दिया, परन्तु प्रताप की छापामार पद्धति ने असंख्य मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट पहुँचा दिया। वर्षा ऋतु ने पहाड़ी नदियों और नालों को पानी से भर दिया, जिसकी वजह से आने जाने के मार्ग अवरुद्ध हो गए। परिणामस्वरूप मुग़लों के आक्रमण स्थगित हो गए।
[सम्पादन] परिवार की सुरक्षा

इस प्रकार समय गुज़रता गया और प्रताप की कठिनाइयाँ भयंकर बनती गईं। पर्वत के जितने भी स्थान प्रताप और उसके परिवार को आश्रय प्रदान कर सकते थे, उन सभी पर बादशाह का आधिकार हो गया। राणा को अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो बस अपने परिवार की ओर से छोटे-छोटे बच्चों की। वह किसी भी दिन शत्रु के हाथ में पड़ सकते थे। एक दिन तो उसका परिवार शत्रुओं के पँन्जे में पहुँच गया था, परन्तु कावा के स्वामीभक्त भीलों ने उसे बचा लिया। भील लोग राणा के बच्चों को टोकरों में छिपाकर जावरा की खानों में ले गये और कई दिनों तक वहीं पर उनका पालन-पोषण किया। भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी राणा और परिवार के लिए खाने की सामग्री जुटाते रहते थे। जावरा और चावंड के घने जंगल के वृक्षों पर लोहे के बड़े-बड़े कीले अब तक गड़े हुए मिलते हैं। इन कीलों में बेतों के बड़े-बड़े टोकरे टाँग कर उनमें राणा के बच्चों को छिपाकर वे भील राणा की सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ों के जंगली जानवरों से भी सुरक्षित रहते थे। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी प्रताप का विश्वास नहीं डिगा।
[सम्पादन] अकबर द्वारा प्रशंसा

अकबर ने भी इन समाचारों को सुना और पता लगाने के लिए अपना एक गुप्तचर भेजा। वह किसी तरक़ीब से उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ राणा और उसके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। खाने में जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं। परन्तु सभी लोग उस खाने को उसी उत्साह के साथ खा रहे थे, जिस प्रकार कोई राजभवन में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्तचर ने किसी चेहरे पर उदासी और चिन्ता नहीं देखी। उसने वापस आकर अकबर को पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और प्रताप के प्रति उसमें मानवीय भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की। अकबर के विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा, "इस संसार में सभी नाशवान हैं। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परन्तु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। पुत्तों ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परन्तु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है, जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।"

परन्तु कभी-कभी ऐसे अवसर आ उपस्थित होते, जब अपने प्राणों से भी प्यारे लोगों को भयानक आवाज़ से ग्रस्त देखकर वह भयभीत हो उठता। उसकी पत्नी किसी पहाड़ी या गुफ़ा में भी असुरक्षित थी और उसके उत्तराधिकारी, जिन्हें हर प्रकार की सुविधाओं का अधिकार था, भूख से बिलखते उसके पास आकर रोने लगते। मुग़ल सैनिक इस प्रकार उसके पीछे पड़ गए थे कि भोजन तैयार होने पर कभी-कभी खाने का अवसर न मिलता था और सुरक्षा के लिए भोजन छोड़कर भागना पड़ता था। एक दिन तो पाँच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा। एक अवसर पर प्रताप की पत्नी और उसकी पुत्र-वधु ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियाँ बनाई। उनमें से आधी रोटियाँ बच्चों को दे दी गई और बची हुई आधी रोटियाँ दूसरे दिन के लिए रख दी गईं। इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चिल्लाहट सुनाई दी। एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसके हिस्से की रोटी को छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के आँसू टपक आये।[10] जीवन की इस दुरावस्था को देखकर राणा का हृदय एक बार विचलित हो उठा। अधीर होकर उसने ऐसे राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वज़ह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े और उसी अवस्था में अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए उसने एक पत्र के द्वारा अकबर से मिलने की माँग की।
[सम्पादन] पृथ्वीराज द्वारा प्रताप का स्वाभिमान जाग्रत करना

प्रताप के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता की सीमा न रही। उसने इसका अर्थ प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव किए। अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभीमानी राजपूत को दिखलाया। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। बीकानेर नरेश ने मुग़ल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था। वह अपनी कविता से मनुष्य के हृदय को उन्मादित कर देता था। वह सदा से प्रताप की आराधना करता आया था। प्रताप के पत्र को पढ़कर उसका मस्तक चकराने लगा। उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई। फिर भी अपने मनोभावों पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा कि "यह पत्र प्रताप का नहीं है। किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाज़ की है। आपको भी धोखा दिया है। आपके ताज़ के बदले में भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा।" सच्चाई को जानने के लिए उसने अकबर से अनुरोध किया कि वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे। अकबर ने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराज ने राजस्थानी शैली में प्रताप को एक पत्र लिख भेजा। अकबर ने सोचा कि इस पत्र से असलियत का पता चल जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही। परन्तु पृथ्वीराज ने उस पत्र के द्वारा प्रताप को उस स्वाभीमान का स्मरण कराया, जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपत्तियों को सहन किया था और अपूर्व त्याग व बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊँचा रखा था। पत्र में इस बात का भी उल्लेख था कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो गई है और बाज़ार में वह मर्यादा बेची जा रही है। उसका ख़रीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रताप को नहीं ख़रीद पाया है। वह ऐसा राजपूत नहीं, जो नौरोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाज़ार में बिक़ेगा।[11]
[सम्पादन] खुशरोज़ त्योहार

राठौर पृथ्वीराज के ओजस्वी पत्र ने प्रताप के मन की निराशा को दूर कर दिया और उसे लगा जैसे दस हज़ार राजपूतों की शक्ति उसके शरीर में समा गई हो। उसने अपने स्वाभिमान को क़ायम रखने का दृढ़संकल्प कर लिया। पृथ्वीराज के पत्र में "नौरोजा के लिए मर्यादा का सौदा" करने की बात कही गई। इसका स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। 'नौरोजा' का अर्थ "वर्ष का नया दिन" होता है और पूर्व के मुसलमानों का यह धार्मिक त्योहार है। अकबर ने स्वयं इसकी प्रतिष्ठा की और इसका नाम रखा "खुशरोज़" अर्थात् 'खुशी का दिन' और इसकी शुरुआत अकबर ने ही की थी। इस अवसर पर सभी लोग उत्सव मनाते और राजदरबार में भी कई प्रकार के आयोजन किए जाते थे। इस प्रकार के आयोजनों में एक प्रमुख आयोजन स्त्रियों का मेला था। एक बड़े स्थान पर मेले का आयोजन किया जाता था, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती थीं। वे ही दुकानें लगाती थीं और वे ही ख़रीददारी करती थीं। पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध था। राजपूत स्त्रियाँ भी दुकानें लगाती थीं। अकबर छद्म वेष में बाज़ार में जाता था और कहा जाता है कि कई सुन्दर बालाएँ उसकी कामवासना का शिकार हो अपनी मर्यादा लुटा बैठतीं। एक बार राठौर पृथ्वीराज की स्त्री भी इस मेले में शामिल हुई थी और उसने बड़े साहस तथा शौर्य के साथ अपने सतीत्व की रक्षा की थी। वह शाक्तावत वंश की लड़की थी। उस मेले में घूमते हुए अकबर की नज़र उस पर पड़ी और उसकी सुन्दरता से प्रभावित होकर अकबर की नियत बिगड़ गई और उसने किसी उपाय से उसे मेले से अलग कर दिया। पृथ्वीराज की स्त्री ने जब क़ामुक अकबर को अपने सम्मुख पाया तो उसने अपने वस्त्रों में छिपी कटार को निकालकर कहा, "ख़बरदार, अगर इस प्रकार की तूने हिम्मत की। सौगन्ध खा कि आज से कभी किसी स्त्री के साथ में ऐसा व्यवहार न करेगा।" अकबर के क्षमा माँगने के बाद पृथ्वीराज की स्त्री मेले से चली गई। अबुल फ़ज़ल ने इस मेले के बारे में अलग बात लिखी है। उनके अनुसार बादशाह अकबर वेष बदलकर मेले में इसलिए जाता था कि उसे वस्तुओं के भाव-ताव मालूम हो सकें।
[सम्पादन] भामाशाह द्वारा प्रताप की शक्तियाँ जाग्रत होना
Main.jpg मुख्य लेख : भामाशाह

पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध करना सम्भव न था। अतः उसने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उसने तैयारियाँ शुरू कीं। सभी सरदार भी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई ताकि बीच का मरुस्थल उसके शत्रु को उससे दूर रखे। अरावली को पार कर जब प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचा ही था कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उसे पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उससे मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।[12] भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठीं।
[सम्पादन] दुर्गों पर अधिकार
युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत

महाराणा प्रताप ने वापस आकर राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उसके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने मुग़ल सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से मुग़ल मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने आमेर तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय कमलमीर पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस दुर्गों पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। संवत 1586 (1530 ई.) में चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।[13] राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने आमेर राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप उदयपुर की तरफ़ बढ़ा। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया।

सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी। परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उसने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार सहित अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उसने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा।
[सम्पादन] वीरता के परिचायक

महाराणा प्रताप ने एक प्रतिष्ठित कुल के मान-सम्मान और उसकी उपाधि को प्राप्त किया। परन्तु उसके पास न तो राजधानी थी और न ही वित्तीय साधन। बार-बार की पराजयों ने उसके स्व-बन्धुओं और जाति के लोगों को निरुत्साहित कर दिया था। फिर भी उसके पास अपना जातीय स्वाभिमान था। उसने सत्तारूढ़ होते ही चित्तौड़ के उद्धार, कुल के सम्मान की पुनर्स्थापना तथा उसकी शक्ति को प्रतिष्ठित करने की तरफ़ अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस ध्येय से प्रेरित होकर वह अपने प्रबल शत्रु के विरुद्ध जुट सका। उसने इस बात की चिन्ता नहीं की कि परिस्थितियाँ उसके कितने प्रतिकूल हैं। उसका चतुर विरोधी एक सुनिश्चित नीति के द्वारा उसके ध्येय का परास्त करने में लगा हुआ था। मुग़ल प्रताप के धर्म और रक्त बंधुओं को ही उसके विरोध में खड़ा करने में जुटा था। मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूँदी के राजा लोग अकबर की सार्वभौम सत्ता के सामने मस्तक झुका चुके थे। इतना ही नहीं, प्रताप का सगा भाई 'सागर'[14] भी उसका साथ छोड़कर शत्रु पक्ष से जा मिला और अपने इस विश्वासघात की क़ीमत उसे अपने कुल की राजधानी और उपाधि के रूप में प्राप्त हुई।
[सम्पादन] कुशल प्रशासक
महाराणा प्रताप का डाक टिकट
Maharana Pratap Stamp

महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने वाले थे। एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ है। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये- "किसी की ओर से सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।" यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिग भाव से उठे थे।
[सम्पादन] मृत्यु

अकबर के युद्ध बन्द कर देने से प्रताप को महा दुःख हुआ। कठोर उद्यम और परिश्रम सहन कर उसने हज़ारों कष्ट उठाये थे, परन्तु शत्रुओं से चित्तौड़ का उद्धार न कर सके। वह एकाग्रचित्त से चित्तौड़ के उस ऊँचे परकोटे और जयस्तम्भों को निहारा करते थे और अनेक विचार उठकर हृदय को डाँवाडोल कर देते थे। ऐसे में ही एक दिन प्रताप एक साधारण कुटी में लेटे हुए काल की कठोर आज्ञा की प्रतीज्ञा कर रहे थे। उनके चारों तरफ़ उनके विश्वासी सरदार बैठे हुए थे। तभी प्रताप ने एक लम्बी साँस ली। सलूम्बर के सामंन्त ने कातर होकर पूछा, "महाराज! ऐसे कौन से दारुण दुःख ने आपको दुःखित कर रखा है और अन्तिम समय में आपकी शान्ति को भंग कर रहा है।" प्रताप का उत्तर था "सरदार जी! अभी तक प्राण अटके हुए हैं, केवल एक ही आश्वासन की वाणी सुनकर यह अभी सुखपूर्वक देह को छोड़ जायेगा। यह वाणी आप ही के पास है।"

"आप सब लोग मेरे सम्मुख प्रतिज्ञा करें कि जीवित रहते अपनी मातृभूमि किसी भी भाँति तुर्कों के हाथों में नहीं सौंपेंगे। पुत्र राणा अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा। वह मुग़लों के ग्रास से मातृभूमि को नहीं बचा सकेगा। वह विलासी है, वह कष्ट नहीं झेल सकेगा।" इसके बाद राणा ने अमरसिंह को बातें सुनाते हुए कहा, "एक दिन उस नीचि कुटिया में प्रवेश करते समय अमरसिंह अपने सिर से पगड़ी उतारना भूल गया था। द्वार के एक बाँस से टकराकर उसकी पगड़ी नीचे गिर गई। दूसरे दिन उसने मुझसे कहा कि यहाँ पर बड़े-बड़े महल बनवा दीजिए।" कुछ क्षण चुप रहकर प्रताप ने कहा, "इन कुटियों के स्थान पर बड़े-बड़े रमणीक महल बनेंगे, मेवाड़ की दुरवस्था भूलकर अमरसिंह यहाँ पर अनेक प्रकार के भोग-विलास करेगा। अमर के विलासी होने पर मातृभूमि की वह स्वाधीनता जाती रहेगी, जिसके लिए मैंने बराबर पच्चीस वर्ष तक कष्ट उठाए, सभी भाँति की सुख-सुविधाओं को छोड़ा। वह इस गौरव की रक्षा न कर सकेगा और तुम लोग-तुम सब उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके मेवाड़ के पवित्र यश में कलंक लगा लोगे।" प्रताप का वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदारों ने उससे कहा, "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं पायेगा, तब तक हम लोग इन्हीं कुटियों में निवास करेंगे।" इस संतोषजनक वाणी को सुनते ही प्रताप के प्राण निकल गए।[15]

इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अवसान हो गया, जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक सिसोदिया को प्रेरित कर रही है। इस संसार में जितने दिनों तक वीरता का आदर रहेगा, उतने ही दिन तक प्रताप की वीरता, माहात्म्य और गौरव संसार के नेत्रों के सामने अचल भाव से विराजमान रहेगा। उतने दिन तक वह 'हल्दीघाट मेवाड़ की थर्मोपोली' और उसके अंतर्गत देवीर क्षेत्र 'मेवाड़ का मैराथन' नाम से पुकारा जाया करेगा।



पंडित नरेन्द्र मिश्र की कविता इस प्रकार है-
राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।
वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।
राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।
पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज़ बलिदानी का।
जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।
लासानी वतन परस्ती का, वह वीर धधकता शोला था।
हल्दीघाटी का महासमर, मज़हब से बढकर बोला था।।
राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।
समराँगण में अरियों तक से, इस योद्धा ने छल नहीं किया।
सम्मान बेचकर जीवन का, कोई सपना हल नहीं किया।।
मिट्टी पर मिटने वालों ने, अब तक जिसका अनुगमन किया।
राणा प्रताप के भाले को, हिमगिरि ने झुककर नमन किया।।
प्रण की गरिमा का सूत्रधार, आसिन्धु धरा सत्कार हुआ।
राणा प्रताप का भारत की, धरती पर जयजयकार हुआ।।






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UPTET SARKARI NAUKRI News - सेवायोजन विभाग के पोर्टल पर अब होंगी सभी वैकेंसी

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सेवायोजन विभाग के पोर्टल पर अब होंगी सभी वैकेंसी
लखनऊ (ब्यूरो)। सरकारी व अर्द्ध सरकारी विभागों में स्थायी और संविदा पर होने वाली भर्तियों और रिक्तियों की सूचना अब सेवायोजन विभाग के पोर्टल www.sewayojan.org पर अनिवार्य रूप से अपलोड की जाएंगी।
प्रमुख सचिव श्रम अरुण कुमार सिन्हा ने इस संबंध में शासनादेश जारी कर दिया है। उन्होंने कहा है कि रिक्तियों के साथ होने वाली भर्तियों के बारे में भी जानकारी दी जाए जिससे धांधली की आशंका कम रहे।
श्रम विभाग की मंशा है कि युवाओं को रोजगार की जानकारी के लिए इधर-उधर भटकना न पड़े। इसीलिए सेवायोजन विभाग के पोर्टल पर स्थायी और अस्थायी रिक्तियों की सभी जानकारियां उपलब्ध कराई जाएंगी जिससे युवाओं को एक ही क्लिक पर सभी विभागों में रिक्त पदों की जानकारी प्राप्त हो सके।
प्रमुख सचिव श्रम ने जारी शासनादेश में कहा है कि 15 मई से 15 जून के बीच प्रत्येक सोमवार को सुबह 11 से दोपहर एक बजे तक प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय लखनऊ में प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा।
प्रशिक्षण कार्यक्रम में विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों को सेवायोजन पोर्टल पर रिक्त पदों व भर्तियों के संबंध में सूचना अपलोड करने की जानकारी दी जाएगी। इसके लिए सभी विभागाध्यक्षों से अधिकारी नामित करने का निर्देश दिया गया है।
इसके साथ ही पोर्टल पर जानकारी डालने के दौरान आने वाली किसी भी समस्या के समाधान के लिए हेल्पलाइन सेवा भी शुरू की गई है। इसका नंबर 0512-2500173 है। हेल्प लाइन सुबह 10 से शाम 6 बजे तक खुली रहेगी।
•स्‍थायी के साथ संविदा भर्ती का भी ब्यौरा होगा ऑनलाइन, शासनादेश जारी
•रिक्तियों के साथ होने वाली भर्तियों के बारे में भी दी जाए जानकारी
पोर्टल पर एेसे करें पंजीकरण
इस पर पोर्टल पर पंजीकरण कराने के लिए बेरोजगारों को सेवायोजन के पोर्टल पर पंजीकरण आईकॉन को क्लिक करना होगा। इसमें अभ्यर्थी अपनी श्रेणी, अपना नाम, मोबाइल नंबर, एवं ई-मेल आईडी को भरना होगा। इसके बाद रजिस्ट्रेशन कराने वाले के मोबाइल पर एक पासवर्ड आएगा। इसके सहारे वह पंजीकरण फॉर्म खोलते हुए अपना पूरा ब्यौरा उसमें भर सकेगा।


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