News -ब्लू व्हेल सुसाइड चेलेंज गेम, दुनिया मे तमाम बच्चों की जान लेने वाला गेम मुम्बई में मनप्रीत को भी सुसाइड करवा गया -
ब्लू वेल चैलेंज: क्या है लगातार मौतों का कारण और इससे कैसे बचें?
जल्द ही आपके पास सिर्फ एक चीज रह जाएगी और वह होगी मेरी फोटो... 7वीं मंजिल से छलांग लगाने से पहले मुंबई के मनप्रीत ने यह लिखा था। माना जाता है कि 14 साल के मनप्रीत ने ऐसा कदम 'ब्लू वेल चैलेंज' गेम के आखिरी चैलेंज को पूरा करने के लिए उठाया था। मनप्रीत ने अपने दोस्तों को बताया था कि वह ब्लू वेल गेम खेल रहा है। उसने जान देने से पहले सोशल मीडिया पर भी लिखा कि मैं खुदकुशी करने जा रहा हूं।
आखिर क्या है ब्लू व्हेल गेम :-
आपकी फॅमिली में या आसपास कोई teenager (11 से 19 साल तक के) कोईभी इंटरनेट यूज़ करता हो तो उनको अलर्ट कर दो की फेसबुक या व्हाट्सएप्प पर Blu Whale नाम की कोई गेम आये तो उसे accept ना करे और कोई भी Link open ना करे।
क्यूंकि इस गेम मे 50 Task होते हे और last task मे suicide करना होता हे।
यदि आप बीच मे ही गेम छोड़ते हो यानी खेलना बंद करते हो तो यह Hacker (हैकर) आपको और आपकी फॅमिली को मार डालने की धमकी देता हे।
एक बार गेम शुरू होने बाद बंद (stop) नहीं कर सकते और 50 task पुरे करने पड़ते हे।
हर टास्क आत्मघाती और कठोर होती जाती है,
इस तरह से खून निकालते हुए चाकू से अपने को गोदकर व्हेल का चिन्ह बनाना जैसी तमाम टास्क होती है 50 दिनों में
एक बार गेम शुरू करते हो तो हैकर (hacker) आपके मोबाइल को हैक कर लेता हे।
*************
इंटरनेट की दुनिया में खतरनाक गेम्स की कमी नहीं है। एक गेम ऐसा है जिसे खेलनेवाला अपने शरीर पर ज्वलनशील चीज डालकर खुद को आग लगा लेता है। वह इसे रिकॉर्ड करता है और फिर सोशल मीडिया पर डालता है। इस गेम का पहला शिकार साल 2012 में सामने आया था। कई युवा इस चैलेंज को करते वक्त बुरी तरह जल गए और कुछ की मौत भी हो गई। इसी तरह, एक गेम में खेलने वालों को कुछ ऐसा करना होता है कि ब्रेन को पूरा ऑक्सीजन न मिले और वह बेहोश हो जाए। इस गेम में जान-बूझकर ब्रेन तक पूरा ऑक्सिजन नहीं पहुंचने दिया जाता ताकि बेहोशी का लक्ष्य हासिल किया जा सके। एक स्टडी के अनुसार, अमेरिका में 9 से 16 साल तक के बच्चे इस गेम को ज्यादा खेलते हैं। इस गेम को खेलते हुए कई बच्चों को जान भी गंवानी पड़ी है। दूसरों को तंग करने वाले एक ऐसे ही दूसरे खतरनाक गेम में सोशल और मेंटल लेवल पर बेहद अपमानजनक और उत्पीड़न की स्थिति पैदा करने वाली स्थिति पैदा की जाती है। इसमें अभद्र संदेश भेजना, गलत अफवाहें फैलाना, गलत पोस्ट करना आदि शामिल है।
क्यों बनाए जाते हैं ऐसे गेम्स?
आखिर मासूमों की जान लेनेवाले ऐसे खतरनाक गेम्स बनाता कौन है और इसके पीछे वजहें क्या होती हैं? ब्लू वेल चैलेंज गेम डिवेलप करने वाले 22 साल के फिलिप बुदिएकिन ने एक इंटरव्यू में कहा कि हां, मैं लोगों को खुदकुशी के लिए उकसाता हूं। जो लोग अपनी जिंदगी की कद्र नहीं करते वे एक तरह से बायॉलजिकल वेस्ट यानी जैविक कचरा हैं। मैं ऐसे ही लोगों को दुनिया से बाहर भेजने का काम कर रहा हूं। जानकारों का कहना है कि इस तरह के खतरनाक गेम्स बनाने के पीछे की असली वजह पैसा और पावर दिखाने की तमन्ना है। सर गंगाराम हॉस्पिटल में कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट डॉ. राजीव मेहता कहते हैं, 'ऐसे खतरनाक गेम्स बनाने वालों के मन में भी कहीं-न-कहीं यह भाव रहा होगा कि किस तरह गेम के जरिए कोई उसके इशारे पर नाच रहा है। ऐसे लोग नॉर्मल नहीं होते।'
कहां से आता है खतरे का यह सामान?
इस तरह के गेम्स के पीछे डार्क नेट की बड़ी भूमिका है। यह इंटरनेट का वह रूप है, जिसकी ज्यादातर चीजें और जानकारी कई तहों में छुपी होती हैं और हर किसी के लिए मुहैया नहीं होतीं। डार्क नेट खास तरह के सॉफ्टवेयर या कन्फिग्रेशन पर काम करता है। अक्सर यह कम्यूनिकेशन के लिए अमान्य और गैर-कानूनी तरीकों का इस्तेमाल करता है। डार्क नेट में सबसे कॉमन है फ्रेंड-टु-फ्रेंड (F2F) कंप्यूटर नेटवर्क। इसमें यूजर को यह जानकारी नहीं मिल पाती कि उसके अपने दोस्तों के सर्कल के बाहर और कौन उनकी बातचीत का हिस्सा बन रहा है। इससे F2F बहुत बड़े लेवल पर फैल सकता है और यूजर की पहचान भी छुपी रहती है। इसका इस्तेमाल अक्सर गलत मकसद से किया जाता है, जैसे कि हैकिंग, पोर्नोग्रफी, डेटा चोरी, ड्रग्स की बिक्री, खतरनाक गेम्स को फैलाना आदि।
किशोर ही टारगेट क्यों?
बच्चे भोले होते हैं और वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। जहां तक बात ब्लू वेल चैलेंज की है तो यह गेम 50 दिन में पूरा होता है। इस दौरान बच्चे गेम में दिखाए गए झूठ को सच समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि कोई भी गेम मनोरंजन और कुछ सीखने के लिए होना चाहिए न कि जान गंवाने के लिए। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी जीत या रोमांच का मजा तभी है, जब जिंदगी हो। इसके अलावा किशोर अक्सर साथियों के प्रेशर में भी रहते हैं और आसानी से ना नहीं कर पाते। दूसरों से अलग दिखने और करने की चाह में भी वे इस अंधेरे में घिरते जाते हैं। कोई भी गेम, ऐसे केमिकल रिलीज़ करता है, जो खुशी और उड़ान का अहसास कराते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि फिजिकल खेल लंबे समय तक इस भाव को बरकरार रखते हैं, जबकि इस तरह के ऑनलाइन गेम तेजी से यह पैदा करते हैं और फिर तेजी से खत्म भी कर देते हैं। ये खेल किशोरों को एक नकली दुनिया में ले जाते हैं। बकौल ब्रूटा, 'मेरे पास एक लड़का आया। उसने मुझसे कहा कि मैं इंटरनैशनल प्लेयर हूं। मैंने पूछा कि किस खेल का वह प्लेयर है तो उसने कहा कि मैं कंप्यूटर पर स्नूकर खेलता हूं। मेरे साथ अमेरिका, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों के खिलाड़ी खेलते हैं। आप सोचिए कि किस कदर वह लड़का सच्चाई से दूर खुद की बनाई दुनिया को ही सच मान रहा था!'
पैरंट्स बढ़ाएं बच्चों से नजदीकी
बच्चा अगर किसी जाल में फंस रहा है तो समय रहते पैरंट्स उसे बचा सकते हैं। अगर वे समय पर सचेत हो जाएं तो उन्हें इसकी जानकारी हो सकती है। पैरंट्स को कुछ बातों का ख्याल रखना चाहिए:
बच्चों के दोस्त बनें। बच्चों की उम्र का बनकर उनकी जिंदगी का हिस्सा बनें।
उन्हें छोटी-छोटी बात पर न टोकें। अगर आप टोकेंगे तो वे आपको अपने मन की बात नहीं बताएंगे।
उनसे बातचीत करें। उनके दोस्तों, शौक आदि के बारे में जानें, लेकिन ऐसे अंदाज में कि आप बातचीत कर रहे हैं, ना कि पूछताछ।
बच्चों को ना कहना सिखाएं। उन्हें बताएं कि उन्हें ऐसा कोई भी काम करने की जरूरत नहीं है, जो उन्हें असुरक्षित या असहज महसूस कराए।
उनके फैसलों का सम्मान करें। उनके डर को सुनें और उससे निकलने में उनकी मदद करें।
देखें कि बच्चा कितना वक्त इंटरनेट पर बिता रहा है, कैसे गेम खेलता है, कौन-से प्रोग्राम देखता है।
बच्चे के लिए गैजट इस्तेमाल करने का टाइम तय करें। अगर लगता है कि बच्चा कुछ गलत देख रहा है तो उस साइट को ब्लॉक कर दें या ऐप को डिलिट कर दें।
खुद भी मोबाइल, इंटरनेट, टीवी आदि पर ज्यादा वक्त न बिताएं। गैजट के संग और गैजट फ्री के तौर पर टाइम को बांटे, मसलन कब गैजट इस्तेमाल कर सकते हैं और कब नहीं, यह नियम बनाएं।
पैरंट्स खासकर पिता का बच्चों के साथ वक्त बिताना जरूरी है। बेहतर होगा कि दोनों साथ में खेलें।
अगर बच्चों में कुछ अजीब लक्षण नजर आएं तो उसे डाटें नहीं, बल्कि सायकॉलजिस्ट या काउंसलर की मदद लें।
क्या हैं लक्षण?
अगर बच्चा कोई खतरनाक गेम खेल रहा है या फिर किसी गलत काम में शामिल है तो कुछ लक्षणों के आधार पर आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं:
बहुत गुस्सा करना
चिड़चिड़ा रहना
ज्यादा मूड स्विंग्स होना
कमरे में बंद रहना
खाना छोड़ देना
देर रात तक जागना
किसी से बात नहीं करना
गुमसुम रहना
बहुत जिद करना
हिंसक हो जाना
पढ़ाई से मन चुराना
स्कूल जाने से बचना
क्लास में टीचर को तंग करना
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
सही पैरंटिंग का मतलब अनुशासन और छूट के बीच संतुलन बनाना है। बच्चों पर निगाह रखी जानी जरूरी है ताकि अगर कोई उन्हें बरगला रहा है तो पैरंट्स समय रहते कोई कदम उठा सकें।
-गीतांजलि शर्मा (सीनियर काउंसलर)
खुद को दूसरों से अलग दिखाने की कोशिश में किशोर कई बार गलत राह पर चले जाते हैं। फिर दोस्तों का दबाव भी होता है। ऐसे में बच्चे को शुरू से ही सही और गलत के बीच फर्क करना सिखाएं।
-डॉ. राजीव मेहता (कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट, सर गंगाराम हॉस्पिटल)
बच्चों का मन बेहद कच्चा होता है। वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। पैरंट्स की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें भटकने से बचाएं। पैरंट्स खासकर पिता बच्चों के साथ वक्त जरूर बिताएं।
-अरुणा ब्रूटा (सीनियर सायकॉलजिस्ट)
खतरनाक खेलों की काली दुनिया
हाल-फिलहाल के दिनों में ब्लू वेल चैलेंज सबसे खतरनाक गेम रहा है। देश की संसद में भी इसे बैन करने की मांग उठ रही है। यह गेम 2013 में सबसे पहले रूस में सामने आया। करीब 4 साल में इसने दुनिया भर में 250 से ज्यादा लोगों की जान ले ली। अकेले रूस में 130 से ज्यादा मौतें हुईं। इसके अलावा, अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, कुल 19 देशों में इस गेम की वजह से खुदकुशी के कई मामले सामने आए हैं। सवाल है कि आखिर ऐसी जीत किस काम की, जब जीतनेवाले की जिंदगी ही न रहे? बेशक किसी भी जीत के मायने तभी हैं, जब उसे एंजॉय करने के लिए सामने वाला जिंदा हो। तो आखिर ऐसे गेम्स खेलने वालों की मानसिकता क्या होती है?
सायकॉलजिस्ट अरुणा ब्रूटा कहती हैं, 'इस तरह के गेम में फंसनेवाले बच्चों की पर्सनैलिटी कहीं-न-कहीं कमजोर होती है। वे दूसरों से ना नहीं कह पाते और परिवार से भी खुलकर अपनी बातें शेयर नहीं करते। इससे जब सामने से कोई उसे डराता है या उसे अपनी बातों से प्रभावित करने की कोशिश करता है तो वे जल्दी उसके जाल में फंस जाते हैं।'
इन खेलों के साथ दिक्कत यह भी है कि इंटरनेट पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं है। मसलन, इंस्टाग्राम पर जब आप ब्लू वेल चैलेंज नाम डालकर सर्च करेंगे तो मेसेज आएगा कि इस शब्द से जुड़ी जानकारी जानलेवा हो सकती है, लेकिन इस मेसेज के ठीक नीचे लिखा होता है: आप चाहें तो आगे बढ़ सकते हैं। जाहिर है, साइबर स्पेस में जिम्मेदारी समझने वालों का घोर अभाव है। ऐसे में उन लोगों को चिंता करने की जरूरत है, जिनके बच्चे इन खतरनाक खेलों के संभावित शिकार हो सकते हैं। सीनियर काउंसलर गीतांजलि शर्मा का कहना है कि पैरंट्स को अपने बच्चों पर निगाह रखनी चाहिए कि वे इंटरनेट पर क्या और कितना देख रहे हैं? बच्चों की संगत का भी ख्याल रखना चाहिए कि बच्चे के दोस्त कौन-कौन हैं? इससे अगर बच्चा किसी गलत संगत में है या कोई उसे भ्रमित कर रहा है तो पैरंट्स को वक्त रहते जानकारी हो जाएगी और वे उससे निपटने के लिए कदम उठा सकेंगे।
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UP-TET 2011, 72825 Teacher Recruitment,Teacher Eligibility Test (TET), 72825 teacher vacancy in up latest news join blog , UPTET , SARKARI NAUKRI NEWS, SARKARI NAUKRI
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CTET, TEACHER ELIGIBILITY TEST (TET), NCTE, RTE, UPTET, HTET, JTET / Jharkhand TET, OTET / Odisha TET ,
Rajasthan TET / RTET, BETET / Bihar TET, PSTET / Punjab State Teacher Eligibility Test, West Bengal TET / WBTET, MPTET / Madhya Pradesh TET, ASSAM TET / ATET
, UTET / Uttrakhand TET , GTET / Gujarat TET , TNTET / Tamilnadu TET , APTET / Andhra Pradesh TET , CGTET / Chattisgarh TET, HPTET / Himachal Pradesh TET
ब्लू वेल चैलेंज: क्या है लगातार मौतों का कारण और इससे कैसे बचें?
जल्द ही आपके पास सिर्फ एक चीज रह जाएगी और वह होगी मेरी फोटो... 7वीं मंजिल से छलांग लगाने से पहले मुंबई के मनप्रीत ने यह लिखा था। माना जाता है कि 14 साल के मनप्रीत ने ऐसा कदम 'ब्लू वेल चैलेंज' गेम के आखिरी चैलेंज को पूरा करने के लिए उठाया था। मनप्रीत ने अपने दोस्तों को बताया था कि वह ब्लू वेल गेम खेल रहा है। उसने जान देने से पहले सोशल मीडिया पर भी लिखा कि मैं खुदकुशी करने जा रहा हूं।
आखिर क्या है ब्लू व्हेल गेम :-
आपकी फॅमिली में या आसपास कोई teenager (11 से 19 साल तक के) कोईभी इंटरनेट यूज़ करता हो तो उनको अलर्ट कर दो की फेसबुक या व्हाट्सएप्प पर Blu Whale नाम की कोई गेम आये तो उसे accept ना करे और कोई भी Link open ना करे।
क्यूंकि इस गेम मे 50 Task होते हे और last task मे suicide करना होता हे।
यदि आप बीच मे ही गेम छोड़ते हो यानी खेलना बंद करते हो तो यह Hacker (हैकर) आपको और आपकी फॅमिली को मार डालने की धमकी देता हे।
एक बार गेम शुरू होने बाद बंद (stop) नहीं कर सकते और 50 task पुरे करने पड़ते हे।
हर टास्क आत्मघाती और कठोर होती जाती है,
इस तरह से खून निकालते हुए चाकू से अपने को गोदकर व्हेल का चिन्ह बनाना जैसी तमाम टास्क होती है 50 दिनों में
एक बार गेम शुरू करते हो तो हैकर (hacker) आपके मोबाइल को हैक कर लेता हे।
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इंटरनेट की दुनिया में खतरनाक गेम्स की कमी नहीं है। एक गेम ऐसा है जिसे खेलनेवाला अपने शरीर पर ज्वलनशील चीज डालकर खुद को आग लगा लेता है। वह इसे रिकॉर्ड करता है और फिर सोशल मीडिया पर डालता है। इस गेम का पहला शिकार साल 2012 में सामने आया था। कई युवा इस चैलेंज को करते वक्त बुरी तरह जल गए और कुछ की मौत भी हो गई। इसी तरह, एक गेम में खेलने वालों को कुछ ऐसा करना होता है कि ब्रेन को पूरा ऑक्सीजन न मिले और वह बेहोश हो जाए। इस गेम में जान-बूझकर ब्रेन तक पूरा ऑक्सिजन नहीं पहुंचने दिया जाता ताकि बेहोशी का लक्ष्य हासिल किया जा सके। एक स्टडी के अनुसार, अमेरिका में 9 से 16 साल तक के बच्चे इस गेम को ज्यादा खेलते हैं। इस गेम को खेलते हुए कई बच्चों को जान भी गंवानी पड़ी है। दूसरों को तंग करने वाले एक ऐसे ही दूसरे खतरनाक गेम में सोशल और मेंटल लेवल पर बेहद अपमानजनक और उत्पीड़न की स्थिति पैदा करने वाली स्थिति पैदा की जाती है। इसमें अभद्र संदेश भेजना, गलत अफवाहें फैलाना, गलत पोस्ट करना आदि शामिल है।
क्यों बनाए जाते हैं ऐसे गेम्स?
आखिर मासूमों की जान लेनेवाले ऐसे खतरनाक गेम्स बनाता कौन है और इसके पीछे वजहें क्या होती हैं? ब्लू वेल चैलेंज गेम डिवेलप करने वाले 22 साल के फिलिप बुदिएकिन ने एक इंटरव्यू में कहा कि हां, मैं लोगों को खुदकुशी के लिए उकसाता हूं। जो लोग अपनी जिंदगी की कद्र नहीं करते वे एक तरह से बायॉलजिकल वेस्ट यानी जैविक कचरा हैं। मैं ऐसे ही लोगों को दुनिया से बाहर भेजने का काम कर रहा हूं। जानकारों का कहना है कि इस तरह के खतरनाक गेम्स बनाने के पीछे की असली वजह पैसा और पावर दिखाने की तमन्ना है। सर गंगाराम हॉस्पिटल में कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट डॉ. राजीव मेहता कहते हैं, 'ऐसे खतरनाक गेम्स बनाने वालों के मन में भी कहीं-न-कहीं यह भाव रहा होगा कि किस तरह गेम के जरिए कोई उसके इशारे पर नाच रहा है। ऐसे लोग नॉर्मल नहीं होते।'
कहां से आता है खतरे का यह सामान?
इस तरह के गेम्स के पीछे डार्क नेट की बड़ी भूमिका है। यह इंटरनेट का वह रूप है, जिसकी ज्यादातर चीजें और जानकारी कई तहों में छुपी होती हैं और हर किसी के लिए मुहैया नहीं होतीं। डार्क नेट खास तरह के सॉफ्टवेयर या कन्फिग्रेशन पर काम करता है। अक्सर यह कम्यूनिकेशन के लिए अमान्य और गैर-कानूनी तरीकों का इस्तेमाल करता है। डार्क नेट में सबसे कॉमन है फ्रेंड-टु-फ्रेंड (F2F) कंप्यूटर नेटवर्क। इसमें यूजर को यह जानकारी नहीं मिल पाती कि उसके अपने दोस्तों के सर्कल के बाहर और कौन उनकी बातचीत का हिस्सा बन रहा है। इससे F2F बहुत बड़े लेवल पर फैल सकता है और यूजर की पहचान भी छुपी रहती है। इसका इस्तेमाल अक्सर गलत मकसद से किया जाता है, जैसे कि हैकिंग, पोर्नोग्रफी, डेटा चोरी, ड्रग्स की बिक्री, खतरनाक गेम्स को फैलाना आदि।
किशोर ही टारगेट क्यों?
बच्चे भोले होते हैं और वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। जहां तक बात ब्लू वेल चैलेंज की है तो यह गेम 50 दिन में पूरा होता है। इस दौरान बच्चे गेम में दिखाए गए झूठ को सच समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि कोई भी गेम मनोरंजन और कुछ सीखने के लिए होना चाहिए न कि जान गंवाने के लिए। वे यह नहीं समझ पाते कि किसी भी जीत या रोमांच का मजा तभी है, जब जिंदगी हो। इसके अलावा किशोर अक्सर साथियों के प्रेशर में भी रहते हैं और आसानी से ना नहीं कर पाते। दूसरों से अलग दिखने और करने की चाह में भी वे इस अंधेरे में घिरते जाते हैं। कोई भी गेम, ऐसे केमिकल रिलीज़ करता है, जो खुशी और उड़ान का अहसास कराते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि फिजिकल खेल लंबे समय तक इस भाव को बरकरार रखते हैं, जबकि इस तरह के ऑनलाइन गेम तेजी से यह पैदा करते हैं और फिर तेजी से खत्म भी कर देते हैं। ये खेल किशोरों को एक नकली दुनिया में ले जाते हैं। बकौल ब्रूटा, 'मेरे पास एक लड़का आया। उसने मुझसे कहा कि मैं इंटरनैशनल प्लेयर हूं। मैंने पूछा कि किस खेल का वह प्लेयर है तो उसने कहा कि मैं कंप्यूटर पर स्नूकर खेलता हूं। मेरे साथ अमेरिका, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों के खिलाड़ी खेलते हैं। आप सोचिए कि किस कदर वह लड़का सच्चाई से दूर खुद की बनाई दुनिया को ही सच मान रहा था!'
पैरंट्स बढ़ाएं बच्चों से नजदीकी
बच्चा अगर किसी जाल में फंस रहा है तो समय रहते पैरंट्स उसे बचा सकते हैं। अगर वे समय पर सचेत हो जाएं तो उन्हें इसकी जानकारी हो सकती है। पैरंट्स को कुछ बातों का ख्याल रखना चाहिए:
बच्चों के दोस्त बनें। बच्चों की उम्र का बनकर उनकी जिंदगी का हिस्सा बनें।
उन्हें छोटी-छोटी बात पर न टोकें। अगर आप टोकेंगे तो वे आपको अपने मन की बात नहीं बताएंगे।
उनसे बातचीत करें। उनके दोस्तों, शौक आदि के बारे में जानें, लेकिन ऐसे अंदाज में कि आप बातचीत कर रहे हैं, ना कि पूछताछ।
बच्चों को ना कहना सिखाएं। उन्हें बताएं कि उन्हें ऐसा कोई भी काम करने की जरूरत नहीं है, जो उन्हें असुरक्षित या असहज महसूस कराए।
उनके फैसलों का सम्मान करें। उनके डर को सुनें और उससे निकलने में उनकी मदद करें।
देखें कि बच्चा कितना वक्त इंटरनेट पर बिता रहा है, कैसे गेम खेलता है, कौन-से प्रोग्राम देखता है।
बच्चे के लिए गैजट इस्तेमाल करने का टाइम तय करें। अगर लगता है कि बच्चा कुछ गलत देख रहा है तो उस साइट को ब्लॉक कर दें या ऐप को डिलिट कर दें।
खुद भी मोबाइल, इंटरनेट, टीवी आदि पर ज्यादा वक्त न बिताएं। गैजट के संग और गैजट फ्री के तौर पर टाइम को बांटे, मसलन कब गैजट इस्तेमाल कर सकते हैं और कब नहीं, यह नियम बनाएं।
पैरंट्स खासकर पिता का बच्चों के साथ वक्त बिताना जरूरी है। बेहतर होगा कि दोनों साथ में खेलें।
अगर बच्चों में कुछ अजीब लक्षण नजर आएं तो उसे डाटें नहीं, बल्कि सायकॉलजिस्ट या काउंसलर की मदद लें।
क्या हैं लक्षण?
अगर बच्चा कोई खतरनाक गेम खेल रहा है या फिर किसी गलत काम में शामिल है तो कुछ लक्षणों के आधार पर आप इसका अंदाजा लगा सकते हैं:
बहुत गुस्सा करना
चिड़चिड़ा रहना
ज्यादा मूड स्विंग्स होना
कमरे में बंद रहना
खाना छोड़ देना
देर रात तक जागना
किसी से बात नहीं करना
गुमसुम रहना
बहुत जिद करना
हिंसक हो जाना
पढ़ाई से मन चुराना
स्कूल जाने से बचना
क्लास में टीचर को तंग करना
क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
सही पैरंटिंग का मतलब अनुशासन और छूट के बीच संतुलन बनाना है। बच्चों पर निगाह रखी जानी जरूरी है ताकि अगर कोई उन्हें बरगला रहा है तो पैरंट्स समय रहते कोई कदम उठा सकें।
-गीतांजलि शर्मा (सीनियर काउंसलर)
खुद को दूसरों से अलग दिखाने की कोशिश में किशोर कई बार गलत राह पर चले जाते हैं। फिर दोस्तों का दबाव भी होता है। ऐसे में बच्चे को शुरू से ही सही और गलत के बीच फर्क करना सिखाएं।
-डॉ. राजीव मेहता (कंसल्टंट सायकायट्रिस्ट, सर गंगाराम हॉस्पिटल)
बच्चों का मन बेहद कच्चा होता है। वे आसानी से दूसरों से प्रभावित हो जाते हैं। पैरंट्स की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें भटकने से बचाएं। पैरंट्स खासकर पिता बच्चों के साथ वक्त जरूर बिताएं।
-अरुणा ब्रूटा (सीनियर सायकॉलजिस्ट)
खतरनाक खेलों की काली दुनिया
हाल-फिलहाल के दिनों में ब्लू वेल चैलेंज सबसे खतरनाक गेम रहा है। देश की संसद में भी इसे बैन करने की मांग उठ रही है। यह गेम 2013 में सबसे पहले रूस में सामने आया। करीब 4 साल में इसने दुनिया भर में 250 से ज्यादा लोगों की जान ले ली। अकेले रूस में 130 से ज्यादा मौतें हुईं। इसके अलावा, अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, कुल 19 देशों में इस गेम की वजह से खुदकुशी के कई मामले सामने आए हैं। सवाल है कि आखिर ऐसी जीत किस काम की, जब जीतनेवाले की जिंदगी ही न रहे? बेशक किसी भी जीत के मायने तभी हैं, जब उसे एंजॉय करने के लिए सामने वाला जिंदा हो। तो आखिर ऐसे गेम्स खेलने वालों की मानसिकता क्या होती है?
सायकॉलजिस्ट अरुणा ब्रूटा कहती हैं, 'इस तरह के गेम में फंसनेवाले बच्चों की पर्सनैलिटी कहीं-न-कहीं कमजोर होती है। वे दूसरों से ना नहीं कह पाते और परिवार से भी खुलकर अपनी बातें शेयर नहीं करते। इससे जब सामने से कोई उसे डराता है या उसे अपनी बातों से प्रभावित करने की कोशिश करता है तो वे जल्दी उसके जाल में फंस जाते हैं।'
इन खेलों के साथ दिक्कत यह भी है कि इंटरनेट पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं है। मसलन, इंस्टाग्राम पर जब आप ब्लू वेल चैलेंज नाम डालकर सर्च करेंगे तो मेसेज आएगा कि इस शब्द से जुड़ी जानकारी जानलेवा हो सकती है, लेकिन इस मेसेज के ठीक नीचे लिखा होता है: आप चाहें तो आगे बढ़ सकते हैं। जाहिर है, साइबर स्पेस में जिम्मेदारी समझने वालों का घोर अभाव है। ऐसे में उन लोगों को चिंता करने की जरूरत है, जिनके बच्चे इन खतरनाक खेलों के संभावित शिकार हो सकते हैं। सीनियर काउंसलर गीतांजलि शर्मा का कहना है कि पैरंट्स को अपने बच्चों पर निगाह रखनी चाहिए कि वे इंटरनेट पर क्या और कितना देख रहे हैं? बच्चों की संगत का भी ख्याल रखना चाहिए कि बच्चे के दोस्त कौन-कौन हैं? इससे अगर बच्चा किसी गलत संगत में है या कोई उसे भ्रमित कर रहा है तो पैरंट्स को वक्त रहते जानकारी हो जाएगी और वे उससे निपटने के लिए कदम उठा सकेंगे।
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