Very Good Article - Must Read
-मनोज कुमार सिंह ‘मयंक’ ||
Article by Mr. Manoj Kumar Singh Singh "Mayank" (on Mediadarbar.com )
हमारे देश को आजाद हुए ६४ वर्ष से अधिक हो गए हैं,हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पराधीन भारत में स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा था,हम उसके आस पास भी नहीं हैं|अपने अधिकारों और कर्तव्यों की कौन कहे,इन ६४ सालों में हम आज तक समग्र साक्षरता के मह्त्वाकांक्षी लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए हैं|हालांकि,इतने सालों में हमने अच्छी उपलब्धि हासिल की है और आज साक्षरता के क्षेत्र में हम ब्रिटिश राज के १२ प्रतिशत के आकडें को पार करते हुए २०११ के आंकड़ों के अनुसार ७५.०४ प्रतिशत तक पहुँच गए हैं किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से हम आज भी विश्व साक्षरता के औसत (८४ प्रतिशत) से भी लगभग १० अंक निचले पायदान पर स्थित हैं|बात यही पर खत्म नहीं होती है,यदि हम नेपाल,बंगलादेश और पाकिस्तान जैसे संसाधनविहीन देशों को छोड़ दे तो हमारे अन्य पडोसी मसलन चीन,म्यामार,यहाँ तक की श्रीलंका जैसे छोटे देश भी साक्षरता के क्षेत्र में ९० प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुके है|ध्यातव्य है की साक्षरता के ये आंकड़े ७ वर्ष से ऊपर आयु वर्ग की जनसँख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं|
वास्तव में,इसके मूल में अंग्रेजों द्वारा स्थापित वह दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है,जिससे हम आज तक नहीं उबर पाए हैं|अंग्रेजों ने शिक्षा के क्षेत्र में अधोमुख निस्यन्दन की वह प्रक्रिया विकसित की जिसके तहत मिशनरी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हमारी समग्र शिक्षा व्यवस्था का नियामक बन बैठा|शिक्षा में भारतीयता और राष्ट्रवाद के तत्वों को एक निहित उद्देश्य के चलते धीरे धीरे सीमित किया गया और आज वह पूरी तरह से विलुप्त हो गया है|हमारे शिक्षालयों में संसाधनों का भारी अभाव है और योग्य शिक्षकों की कमी है|हम योजना दर योजना मूल्य आधारित,गुणवत्तापरक और सामूहिक शिक्षा की बात करते तो हैं किन्तु जब इन्हें अमली जामा पहनाने का वक्त आता है तो हम बजट की कमी का रोना रोने लगते हैं|राज्य, केन्द्र पर दोषारोपण करता है और केन्द्र सरकार राज्यों को दोषी ठहराने लगती है|यह बात सर्वविदित है की जब तक विद्यालयों में योग्य शिक्षक नहीं होंगे,सर्व शिक्षा अभियान के मह्त्वाकांक्षी उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता और यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम यह मान कर चलते हैं की ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने १९९३ में यह स्पष्ट किया था की १४ साल तक के समस्त बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना एक मौलिक अधिकार है यद्यपि यह राज्य पर निर्भर करता है की वह इस बाध्यकारी व्यवस्था को कैसे लागू करती है?
यह १८३५ में लार्ड मैकाले द्वारा स्थापित मात्र अंग्रेजी शिक्षण की वह व्यवस्था नहीं है जिसका एकमात्र उद्देश्य लिपिकों की एक फ़ौज खड़ी करना हो और जिसके द्वारा भारत सरकार अपने प्रशासनिक उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए मानव संसाधन विकसित करने के स्थान पर न्यूनतम साक्षरता हासिल करने के उद्देश्य तक ही सीमित रहे बल्कि अनिवार्य शिक्षा क़ानून का आशय ६ से १४ वर्ष की आयु वर्ग तक के बच्चों में उनके विकास क्रम के अनुसार उनके बौद्धिक,शारीरिक,मानसिक,नैतिक और वैज्ञानिक जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान कर उनके अंदर एक वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि विकसित करना है और जब शिक्षा के क्षेत्र में इन दूरगामी उद्देश्यों की पूर्ति करना है तो योग्य शिक्षकों का होना अपरिहार्य है लिहाजा योग्य शिक्षकों के चयन का मानक मात्र प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र पाना ही नहीं होना चाहिए|इन्हीं सब उद्देश्यों को केन्द्र में रखते हुए केन्द्र सरकार ने १७ अगस्त १९९५ को राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का गठन किया|इससे पहले राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद के अंतर्गत अधीनस्थ के रूप में कार्य कर रही थी और १९७३ से लेकर १९९५ तक इसका कार्य मात्र राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद को विविध मसलों पर सलाह देने तक ही सीमित था|१९८६ के राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात का स्पष्ट रूप से अनुभव किया गया की विभिन्न बोर्डों में न सिर्फ योग्य अध्यापकों की भारी कमी है वरन उनके पाठ्यक्रमों में भी पर्याप्त भिन्नता है|देश के अनेक राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का अधिकाँश भार इंटर उत्तीर्ण अथवा कहीं कहीं हाई स्कूल उत्तीर्ण ऐसे अप्रक्षित अध्यापक वहन कर रहे हैं, जिन्हें न तो बाल मनोविज्ञान की सम्यक जानकारी है और न ही वे शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों से परिचित हैं|
वर्तमान में भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र ४.१ फीसदी व्यय कर रहा है जो आगे बढ़ कर लगभग ६ फीसदी होने का अनुमान है|इसका यह साफ़ अर्थ है, हमें बड़ी मात्रा में शिक्षक चाहिए और ऐसे शिक्षक चाहिए जो वैश्विक मानदंडों पर खरे उतरते हो|हम जानते हैं की शिक्षा के क्षेत्र में निर्मित पिछली समस्त योजनाएं नाकारा साबित हो चुकी हैं और यह स्थिति तब है जब केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ साथ हमारे देश को शिक्षित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं और वे हमारे देश को अकेले शिक्षा के मद में प्रतिवर्ष करोड़ो,अरबों रुपये अनुदान अथवा ऋण के रूप में उपलब्ध करवाती हैं|२००८-०९ के आंकड़े बताते हैं की प्राथमिक शिक्षा के शेत्र में समस्त भारत में प्रति ३२ विद्यार्थी पर १ शिक्षक उपलब्ध है, देश के १४६ जिले ऐसे हैं जहाँ ४० विद्यार्थियों पर १ शिक्षक उपलब्ध है और यदि इन आकडों में दूर दराज के ग्रामीण अंचलों को भी शामिल कर लिया जाए तो अनेक ऐसे विद्यालय हैं जहाँ १०० विद्यार्थियों पर मात्र एक शिक्षक की उपलब्धता है और वह भी अप्रशिक्षित होने के साथ ही प्राथमिक शिक्षा के लिए नितांत अयोग्य है|उत्तर प्रदेश के समस्त प्राथमिक विद्यालयों के १२.०८ प्रतिशत और बिहार के ११.९० प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षक छात्र अनुपात १०० से भी ऊपर है|आंध्र प्रदेश,अरुणांचल,दिल्ली,हिमाचल,कर्नाटक,केरल,महाराष्ट्र जैसे १४ राज्य ऐसे हैं जहाँ १०० से ऊपर अनुपात वाले विद्यालय .५ प्रतिशत से भी कम हैं और उच्च साक्षरता दर के रूप में इनका परिणाम हमारे सामने है|उत्तर प्रदेश और बिहार में प्राथमिक शिक्षा बस राम भरोसे ही चल रही है क्योंकि इन दो राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का सम्पूर्ण राजनीतिकरण हो चूका है|राज्य के परिषदीय विद्यालयों में ग्राम प्रधानों और सभासदों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है क्योंकि इंटर अथवा स्नातक शिक्षा मित्र ग्राम प्रधानों तथा सभासदों द्वारा अनुचित तरीके से चुने जाते हैं और इनके संपर्क बेसिक शिक्षा अधिकारी तक से होने के कारण मिड डे मील योजना में भारी उलट फेर करते हुए पाए जाते हैं|
आज स्थिति यह है की पूरे देश में केवल नाम मात्र की शिक्षा दी जा रही है|वास्तविकता यह है की भारत में शिक्षा को मटियामेट करने का कार्य तब से प्रारम्भ हुआ जब से प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में संविदा के आधार पर उन लोगों को शिक्षक बना कर नियुक्त किया जाने लगा जो खुद भी इंटर पास नहीं कर सके थे| उदहारण के लिए पश्चिम बंगाल और असं जैसे राज्यों में कोई भी कक्षा १० उत्तीर्ण व्यक्ति बिना किसी प्रशिक्षण के प्राथमिक विद्यालयों में अध्यापन का कार्य कर सकता है|फलस्वरूप,आकडें बताते हैं की आज भी हमारे देश के विद्यालयों में लगभग ६ लाख शिक्षक ऐसे हैं जिनमें न्यूनतम शैक्षिक अभिरुचि ही नहीं है|जो या तो अयोग्य है अथवा अप्रशिक्षित हैं|
इन्ही सब समस्यायों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने राष्ट्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा का विचार किया और २०११ में प्रथम अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित की|इस परीक्षा को अध्यापक चयन हेतु बाध्यकारी बनाते हुए यह प्रावधान किया गया की उक्त परीक्षा में न्यूनतम ६० प्रतिशत अंक अर्जित करना अनिवार्य होगा और केन्द्र सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त निजी संस्थानों में भी शिक्षक चयन हेतु इसे आधार बनाया जाना चाहिए|जुलाई २०११ में आयोजित प्रथम पात्रता परीक्षा में लगभग ७ लाख १० हजार अभ्यर्थी सम्मिलित हुए जिनमे से महज ९७,९१९ अभ्यर्थी ही इस परीक्षा में सफल हो सके शेष ८६ प्रतिशत अभ्यर्थी असफल हुए और उन्होंने सम्पूर्ण परीक्षा प्रक्रिया का ही आलोचना करना प्रारम्भ कर दिया|चूँकि रिक्तियों के सापेक्ष सफल होने वाले अभ्यर्थियों की तादाद कम थी अतः यह प्रावधान भी किया गया की राज्य सरकार चाहे तो वह अलग से प्रदेश स्तर पर अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित कर सकती है किन्तु आगे से अध्यापको के चयन का आधार केवल पात्रता परीक्षा ही होगी|प्रारम्भ में कोई भी राज्य राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद की इस अवधारणा से सहमत नहीं हुआ और उत्तर प्रदेश में तो इससे मुक्ति पाने के लिए अनेक बार परिषद के मसौदे को ठुकराने की चेष्टा की गयी किन्तु देश हित में परिषद के अड़ियल रवैये के चलते सरकार ने घुटने टेके और आनन फानन में उत्तर प्रदेश अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित की गयी|प्रश्न पत्र का स्वरुप सरलतम रखा गया ताकि अधिक से अधिक लोग इस परीक्षा को पास कर सके और प्रदेश में अनुमानित १ लाख ९० हजार रिक्तियों को आसानी से भरा जा सके| प्रश्न पत्र में लगभग ९० फीसदी प्रश्न शिक्षा मित्रों को प्रशिक्षण हेतु दिए गए अभ्यास पुस्तिकाओं से ही पूछे गए ताकि शिक्षा मित्र भी इसे आसानी से पास कर सके|इसके बावजूद लगभग ५७ प्रतिशत छात्र अनुतीर्ण हुए और इससे मुक्ति हेतु अदालत का दरवाजा खटखटाने लगे|माननीय उच्च न्यायालय ने भी योग्यता के मूल्यांकन की इस प्रणाली में आस्था व्यक्त की और अध्यापक पात्रता परीक्षा के विरुद्ध लंबित तमाम याचिकाओं को प्रथम दृष्टया ही निरस्त कर दिया|अब न्यायालय में पात्रता परीक्षा के विरुद्ध कोई भी दमदार याचिका नहीं है लेकिन पात्रता परीक्षा को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है|
इस विवाद के केन्द्र में पात्रता परीक्षा के आधार पर ७२,८२५ रिक्तियों के भरे जाने हेतु बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा प्रकाशित विज्ञप्ति है|यादव कपिल देव लालबहादुर और राज्य तथा अन्य द्वारा उच्च न्यायालय में दायर याचिका ने पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को आंदोलित कर दिया है|इस याचिका में पात्रता परीक्षा को नहीं बल्कि बेसिक शिक्षा विभाग को कटघरे में खड़ा किया गया है|मामला यह है की बेसिक शिक्षा अधिनियम १९७३ के अनुसार प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में चयन हेतु नियुक्ति प्राधिकारी बेसिक शिक्षा अधिकारी होगा और इस बार के विज्ञापन में इस परम्परा को तोडा गया है|स्पष्ट है की याचिका तकनिकी रूप से समस्त प्रक्रिया को उलझाने के निमित्त लायी गयी है और इस याचिका के पीछे संविधान की आंशिक शक्ति भी नहीं है बल्कि इस एक याचिका के कारण पूरे प्रदेश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम का खुल्लम खुल्ला मखौल उडाया जा रहा है और देश का एक अदना सा नागरिक भी इस बात को स्पष्ट रूप से समझता है की न्यायालय मूल अधिकारों का सबसे बड़ा संरक्षक है|अतः,मेरा आंकलन है की माननीय उच्च न्यायालय को इस याचिका को निरस्त कर देना चाहिए और उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के पीछे विधि की शक्ति विद्यमान होने के कारण ऐसा होगा भी|फिर भी इस याचिका ने राज्य में नियुक्तियों के भविष्य को प्रभावित किया है और नियुक्तियों में जितना ही देर होता जा रहा है उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के मन में उतना ही आक्रोश भरता जा रहा है|अकादमिक में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले किन्तु पात्रता परीक्षा में फिसड्डी अभ्यर्थी टीईटी प्राप्तांकों को चयन का आधार बनाये जाने के विरुद्ध हैं किन्तु विविध बोर्डों के मध्य असमानता वाली कसौटी पर खरे न उतरने के कारण राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद भी उनके मांगों और प्रस्तावों को गंभीरता से नहीं ले रहा है|बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकाँश अधिकारी और लगभग ९० फीसदी ब्यूरोक्रेसी टीईटी प्राप्तांकों को चयन का आधार बनाये जाने को न्यायोचित मानती है और शिक्षा के अन्तराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के लिए यह जरूरी भी है|
जिस प्रकार एक अयोग्य माली पानी और खाद के प्रयोग से अनभिग्य होने के कारण पूरे बगिया को उजाड कर रख देने का प्रधान कारण बनता है ठीक उसी प्रकार एक अयोग्य शिक्षक समस्त राष्ट्र को उजाड सकता है|अध्यापक पात्रता परीक्षा दूध में से मक्खन निकालने की प्रक्रिया है अतः इसके आधार पर चयन पूरी तरह न्यायसम्मत है और जिस प्रकार ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार है ठीक उसी प्रकार योग्य शिक्षक द्वारा शिक्षा ग्रहण करना भी उनका मौलिक अधिकार होना चाहिए क्योंकि संविधान द्वारा अनुच्छेद २१ में दिया गया जीवन रक्षा का अधिकार तब तक व्यर्थ है जब तक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक उपकरणों का भी प्रबंध नहीं कर दिया जाता|शिक्षा, जीवन रक्षा के अधिकार का एक अनिवार्य उपकरण है और इस उपकरण का उचित समय पर उचित प्रयोग एक योग्य अध्यापक ही बता सकता है|
manoj kumar mayank ji ne ab ta ka is blog site par sabse achchha blog likha hai.
ReplyDeletemain unse personal request karunga ki is blog ko jyad se jyada logon tak pahunchaye.
ise news paper me bhi sampadkiy me bhejen
please is blog ko mere email address
par mail kar den --sunlkmrr@gmail.com
Such blogs should be published in all newspaper and should be sent to all authorities related to education....
ReplyDeleteoh really ,,,,,,
ReplyDeletetrue n real i support it with heart ,,, that sh mediaoud b publish in
mayank bhai ye jo apne publish kiya hai wakai me TAHE DIL SE THANKS,
ReplyDelete@.* mujhe lagta hai is publicatio ko S.C. Ke chief justice ke email id pe send ki jane chahiye aur nyay ke jiye guhar laganai chahiye *
aj kuchch kisi ne desh hit me bola hai
plz friends do it
tab ho sakta hai ki sc swah sangyan le ke kuchbh sahi faisla de
Is blog ka printout nikalkar manniya judge mahoday aur c.m. ko bhent mein dena chahiye. Important points ko highlight karte huye.
ReplyDeleteVery nice. thanks Manoj ji
ReplyDeleteSuna jata hai ki bina shiksha ke manusya pashu ke saman hai.
ReplyDeleteYadi yaha ke log anpad hoge to yaha ke luchche gunde neta ham par rajniti kar desh ko khub lut sakte hai.esliye ye apne aap ko surakshit rakhna chahate hai na ki desh ko.
ADITYA FAIZABAD,LORD MAKALEY SE LEKAR MANMOHAN SINGH AUR KAPPIL SIBBLE TAK SABHI NE SIKCHA KA RAJNEETE KARAN HE KIYA HAI.MUJHE LAGTA HAI KE SACHARTA DARR KAGAJ PAR JYADA BADHI HAI AUR HAQQIKAT ME KAM.AUR KAPIL DEV JAISE LOG ISSKO AUR HANI PAHUCHA RAHE HAI.
ReplyDeletekul mila ke bolo ki hum logo ne padhai ki nahi to acedemik me number nahi aaye to kya hame bhi naukari panne ka haq nahi hai ,waise bhi tet merit wale itane bade tis mar kahan hai ki aaj tak apni kabiliyat ke bal par koi naukari nahi pa sake kisi tarah billi ke bhagya se chika phoota hai ....
ReplyDeleteआदरणीय मुस्कान जी,
ReplyDeleteअपने ब्लॉग में मेरे लेख को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ|श्रीमान मनोज मिश्रा जी आप अकादमिक के बहुत बड़े समर्थक हैं यह जान कर प्रसन्नता हुई|मैं टीईटी प्राप्तांकों की वकालत क्यों कर रहा हूँ इसके समर्थन में मेरे पास ३००० तथ्य और आकडे हैं|खेद का विषय है की आज सत्य को भी प्रमाणित होने की आवश्यकता पड़ रही है|खैर,यही सही सत्य के पथ पर चलने वाले कभी विचलित नहीं होते|इस आलेख को निम्न लिंक पर पढ़ा जा सकता है|...
http://www.mediadarbar.com/5333/school-teacher/
Mayank ji realy heartful thanx to much
ReplyDeleteMayank ji kripya ise meri email id[umesh.sahawar@gmail.com] par send kar dijiye.
ReplyDeleteThanks.
Aaj allahabad mein sanjay mohan ke kesh ki sunwai hai,uska abhi kya chal raha.plz reply frnds
ReplyDeleteek baar fir se laga do poora joor ,
ReplyDeletemilega hak tumko jaroor ,
nikal pado sabhi tetians apne gharo se tabhi hoga C.M majboor
30 march ko chalna hai lucknow iska rakhna tum dhyan jaroor
chale lathiyaa yaa chale goli himmatt dikhani hai hume bharpoor